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छंद 204 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(मध्या गच्छत्पतिका नायिका-वर्णन)

सुनि कूक कसाइनि क्वै लिया की, करिहैं जो कछूक किऐं बनिहैं।
‘द्विजदेव’ जू ऊधम औरौं सुनैं, बनिहैं जो हिऐं सो हिऐं बनिहैं॥
पिय-पीतम आप बिदेस चले, तो हमैं सिख एती लिऐं बनिहैं।
समुहात जुबापन सौं जुरिकैं, कहौ कौंन जबाब दिऐं बनिहैं॥

भावार्थ: मध्या-प्रौढ़ा की वयस-संधि में ‘प्रवत्स्यत्पतिका नायिका’ पति से पूछती है कि वसंतागम में कोकिल-कलाप के श्रवण से जो दुःख होगा उसके निवारण की युक्ति जो उचित होगी करूँगी और इसी प्रकार के, जो और अनेक उद्दीपनकारी उपाधियों का उपयुक्त यत्न होगा किंतु यह अवश्य आप ही से प्रष्टव्य है कि उठती हुई तरुणाई का क्या उत्तर दिया जाएगा? क्योंकि आंगतुक उपाधियों का यत्न तो हो सकता है, परंतु देहज उपद्रवों का निवारण किसी प्रकार संभव नहीं, इस कारण तो सतत शरीर ही की हानि है। इससे यह व्यंग्य निकला कि मेरे इस समय के यौवन की हानि से यह कदापि संभव नहीं कि आपके प्रत्यागत होने के समय तक यह रूप-लावण्य स्थित रहकर आपको प्रमोदकारी हो सके, इसलिए आपकी भी हानि हुई।