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छंद 208 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(नायिका स्वरूप-वर्णन)

बानिक-तानि के मंडल की, उन गोल कपोलन आप लहा है।
त्यौं ‘द्विजदेव’ जू जौन्ह-छटान, हँसी-ही-हँसी मुख-चंद गहा है॥
ए मन-रंजन-अंजन रावरे! नाहक लाह की चाह महा है।
छाँड़ि-कलंक कहौ अब या द्विजराज निलाज सौं लाभ कहा है॥

भावार्थ: नायक कहता है कि हे प्राणप्यारी! तेरे कपोलों की गोलाई ने पूर्ण चंद्र-मंडल की गोलाई की शोभा और तेरे मृदुहास ने चंद्रिका की छवि को हँसते-हँसते (बिना परिश्रम) ले लिया है। अब उसके मन को प्रसन्न करने वाले नेत्रों के काजल ने बची-खुची शोभा के लेने की यदि इच्छा की तो व्यर्थ है, क्योंकि जो किसीकी संपूर्ण धन-संपत्ति छीन ली जावे तो शेष हठात् लेने में सिवा कलंक के और क्या प्राप्त होगा? ऐसी नैराश्यावस्था में सिवाय शरीर त्याग के और कुछ नहीं बन पड़ता। तिसपर भी ब्राह्मण से अथवा जो समृद्धवान् रहकर दरिद्र हो गया हो। चंद्रमा के प्रायः तीन ही गुणों से मुखमंडल की उपमा दी जाती है-गोलाई, प्रकाश और चंद्रमंडल की श्यामता, जिसे कलंक कहते हैं। पूर्व दो गुणों के लेने के पश्चात तीसरा गुण कलंक ही शेष्ज्ञ रह जाता है जिसका कवि ने बड़ी चतुराई से अभिधामूलक व्यंग्य के द्वारा वर्णन किया है।