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छंद 210 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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  मत्तगयंद सवैया
(उत्तमा प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

ह्वै धुरवा धुरवारे अली! ‘द्विजदेव’ चहूँ दिसि दौड़त ह्वैहैं।
त्यौं मनमत्त-सखा ए सिखी, मनमोहनऊँ कौं बिलोड़त ह्वैहैं॥
पावस-काल कराल हहा, छिन एकहू संग न छोड़त ह्वैहैं।
फूल से वे अँग पीउ के हाइ, घनी घन-चोटन ओड़त ह्वैहैं॥

भावार्थ: कोई उत्तमा प्रोषितपतिका नायिका परदेस में बसे प्रियतम की अपनी सी दीन दशा पावस की उद्दीपनकारक वस्तुओं से अनुमान कर स्मरण करती है कि मेघ धूसरित अंग के होकर उस देश में भी दौड़ते होंगे, वैसे ही मन्मथ (काम) केसखा मयूर अपनी केका ध्वनि और नृत्य से मनमोहन के चित्त को विलोडित (मथित) करते होंगे। यह पावस के कराल समय क्षणमात्र भी संताप देने से न चूकते होंगे और हाय! वे पुष्प के ऐसे कोमल शरीर पर घन (लोहार का बड़ा हथौड़ा व बादल) की अनेक चोटों को सहन करते होंगे। (इस ‘घन’ शब्द में अभिधामूलक व्यंग्य है।)