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छंद 218 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(उपपति-वर्णन)

ज्यौं-ज्यौं जात बाढ़त बिभावरी-बिलास त्यौं-त्यौं, चंद्रिका-प्रकास जग-जाहिरै करतु हौ।
‘द्विजदेव’ की सौं कछु आनन-अनूप-ओप, आछे-अरबिंदन की आभा-निदरतु हौ॥
कीवौ है सरस तुम्हैं कौंन बरही कौ हियौ साँची बूझिवे मैं कहा मौनता धरतु हौ?
आज कौंन नारी सौं मिलाप करिवे के काज, चंद से गुपाल! इतै भाँवरैं भरत हौ?

भावार्थ: हे कृष्ण! आज मयंक के सदृश किस नारी (चंद्रमा के सत्ताईस घर लिखे हैं जो नक्षत्र कहलाते हैं और तिनपर वे यथाक्रम आते-जाते हैं) या स्त्री से सम्मिलन हेतु आप इस कुंज में फेरे लगा रहे हो, इसमें मौनावलंबन का कार्य नहीं। देखो, जैसे रजनी की छटा के बढ़ने पर चंद्र की चंद्रिका अर्थात् रत्न-जटित मुकुट (सिरपेंच) का प्रकाश भी बढ़ता जाता है। जैसे कुमुद-बांधव के दर्शन से अरविंद संपुटित (लज्जित) होता है वैसे ही आपके प्रसन्न बदन से भी वह हतप्रभ होता है, तो किस बरही (मयूरी व उत्तम हृदयवाली) के हृदय को आप प्रसन्न किया चाहते हैं? सत्य पूछने में मौनावलंबन का क्या कार्य है अर्थात् जैसे वर्षा काल में घन-विस्फोटन के होने पर क्षणिक चंद्र दर्शन से मयूर (बरही) को आमोद होता है, वैसे ही आपके मुख चंद्र के दर्शन से उत्तमा नायिकाओं को आनंद होता है। विशेष बात यह है कि जैसे चंद्रमा का गुप्त करना संभव नहीं वैसे ही आप भी अनेक यत्न करने पर गुप्त नहीं रह सकते। (इसमें चंद्रिका, बरही, सरस और नारी इन चारों शब्दों में श्लेष है।)