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छंद 220 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

भ्रमे-भूले मलिंदन देखि नितै, तन-भूलि रहैं किन भामिनियाँ।
‘द्विजदेव’ जू डोली-लतान चितै, हिय-धीर धरैं किमि कामिनियाँ॥
हरि हाइ! बिदेस मैं जाइ बसे, तजि ऐसे समैं गज-गामिनियाँ।
मन बौरै न क्यौं सजनी! अब तौ, बन-बौरी बिसासिनि आमिनियाँ॥

भावार्थ: हे सखी! वनस्थली में अज्ञानी भ्रमर-समूह को इतस्ततः प्रमत्तता से भ्रमण करते देख चैतन्य को अपनी चेतनता की दशा क्यों न भूल जाए और हमारा मन क्यों न बौरे? (उन्माद को प्राप्त हो), जब हमारे चतुर्दिक् वन में आम्र-लताएँ बौरी (कुसुमित हुई) हैं प्रत्युत हमको शिक्षा देनेवाले प्रियतम प्यारे हम सब गजगामिनियों को ऐसों के हाथ छोड़ ऐसे समय में परदेस में बसे हैं, अतएव जैसा प्रेरक हमको मिलता है तदनुसार हमारी गति होतीहै। जैसे बहुतेरे मार्ग भूले हुओं में कोई जानकार भी पहुँचे तो वह भी यथार्थ पथ को प्राप्त नहीं कर सकता एवं बहुत से भयभीत व्यक्तियों के बीच में किसी धैर्यवान् का धैर्य नहीं रहता, वह भी कायर हो जाता है और अनेक पागलों के बीच में बैठकर सयाना भी पागल हो जाता है, सोई दशा भूली भ्रमरावली, कंपित लतागन, बौरी अमराइयों के बीच में पड़कर हमारी हुई है।