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छंद 226 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रौढ़ा नायिका सुरतांत-वर्णन)

कुंज-गृह मंजु मधु मधुप अमंद राजैं, तामैं काल्हि स्यामैं बिपरीति-रति राँची री।
‘द्विजदेव’ कीर-कल-कंठन की धुनि जैसी, तैसिऐ अभूत भाई सूत-धुनि माँची री॥
लाज-बस बाम छाम छाती पैं छली के मनौं, नाभि-त्रिबली तैं दूजी नलिनी उमाँची री।
उपमा हुती पैं मानी देबतन साँची या तैं, बिधिहिँ सतावै अजौं सकुचि पिसाची री॥

भावार्थ: हे सखी! पुष्प-मकरंद का पान कर मधुकरों की मनोहर गुंजार से पूरित कंुज-भवन में कल श्याम-राधा विपरीत रीति से संभोग-सुखास्वादन करने लगे, उस समय मनोहर शब्द करनेवाली शुकाली व तद्वत् रसना (क्षुद्रघंटिका) की रसीली धुनि युगपत् काल में प्रकट हुई एवं कृशांगी कामिनी लज्जावश श्याम के वक्ष-स्थल पर ऐसी शोभित होती रही मानो उन (कृष्ण अर्थात् विष्णु) की नाभि-त्रिवली से दूसरी संकुचित कमलिनी निकली हो; इस पूर्ण साम्यता को देख देवताओं ने इसे सच कर माना, इसी कारण से अद्यावधि संकोचरूपी पिशाची ब्रह्मा को व्याकुल किए देती है अर्थात् इस दूसरी कमलिनी के फूलने पर कहीं दूसरे ब्रह्मा भी न निकलें, नहीं तो इन (ब्रह्मा) का अधिकार जाता रहेगा।