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छंद 233 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

आहि कै काँपि, कराहि उठी, दृग-आँसुन-मोचि सँकोचि घरी द्वै।
लै कर कागद कोरौ लला! लिखिवे कहँ बैठी बियोग-कथा स्वै॥
ऐसे मैं आँनि कहूँ ‘द्विजदेव’, बसंत-बयारि कढ़ी तितहीं ह्वै।
बात-की-बत मैं बौरी तिया, अरु पीत ह्वै पाती परी कर सौं च्वै॥

भावार्थ: हे सखी! प्रातः ही वह विरहिणी आह-आह कर कराहती हुई कंपितकलेवर हो अश्रुधारा बहाती हुई संकुचित उठकर (विरह-शय्या पर) बैठी और कागज-कलम लेकर पत्र द्वारा वियोग-कथा के लिखने को उद्यत हुई, इतने ही में वसंतकालीन दक्षिणानिल का झोंका आ लगा और बात-की-बात (तत्क्षण) में वह नायिका बौरी अर्थात् उन्मादित अथवा बौर-संयुक्त हुई और पीली पाती (पत्रिका व वृक्ष पत्र) पीली हो हाथ से टपक पड़ी। वसंतकाल में दक्षिणानिल के प्रवाहित होने से आम्र वृक्षों का बौर आना अर्थात् कुसुमित होना और वृक्षों से पतझड़ होना उचित ही है, अस्तु अभिधामूलक व्यंग्य से जड़ सरीखी (सदृश) नायिका को बौरी कहना तथा उसके हाथ से चिट्ठी अर्थात् पत्रिका का गिर पड़ना उचित ही है।