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छंद 239 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(उन्माद-दशा-वर्णन)

सोक मति दीजै लीजै एतिऐ बड़ाई नाम, रावरौ असोक! सब जानैं थल-थल है।
आज लगि जानति हुती मैं तुम्हें अंब! कहा, बापुरी बियोगिनि तैं कीन्हौं एतौ छल है?॥
एहो चंप-माल बालपन कौ न मानौं सुख, क/ना! पियारे क/ना कौ यह थल है।
ह्वै कैं मैन-संग! कत सालौ अंग-अंग प्रति, एहो करबीर बीर! सींचिवे कौ फल है॥

भावार्थ: कोई प्रोषितपतिका नायिका वसंतागम में अशोकादि के पुष्पित होने से उद्दीपनातिशय्य के कारण परम दुःखित हो उसको उलाहना दे कहती है कि हे अशोक वृक्ष! तुम्हारा नाम तो अशोक अर्थात् शोक को दूर करनेवाला है, अतः तुम यदि अधिक नहीं तो इतना ही सुयश लो कि हमारी विरहावस्था में पुष्पित होकर शोक न दो और हे अंब (आम्र लता) मैं तो आज तक तुम्हें अंब (माता) ही जानकर तुम्हारी सेवा करती रही, पर तुमने क्यों इस दुःखिनी वियोगिनी से इतना विश्वासघात किया अर्थात् मेरे वियोग काल में बौरकर मुझे असह्य दुःख क्यों दिया और हे चंपमाल! तुम बालावस्था की भलाई क्यों नहीं मानतीं? जो मैंने सींच-सींचकर तुम्हें इस योग्य किया कि तुम फूलने-फलने लगीं। हे करुना! तुम्हारानाम तो करुणा (दया) है तुमको अपने नाम के परिचय देने का यही अवसर है। हे करवीर! तुम मन का अनुचित साथ करके हमारे अंग-अंग व्यथित करते हो, तुम्हारे तो नाम ही में वीर शब्द है (वीर, भाई को कहते हैं) अतएवं तुम तो हमारे भाई हुए तुमको तो अवश्य ही दया करनी चाहिए, क्या तुमने अपने सिंचन का फल हमको यही दिया कि विरहानल से भूँज रहे हो।

॥इति द्वितीय सुमनम्॥