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छंद 248 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(कवि-उक्ति-वर्णन)

है मन कौ न प्रवेस जहाँ लौं निवृत्त भई जहँ तैं नित बचाहु।
ध्यान धरैंहूँ लहैं न जिन्हैं हर, बिस्नु, बिरंचि बिचारत साँचहु॥
औरन कौं तहँ कौंन गनैंगौ, न तोष लहैं जे नचैं भव-नाँचहु।
जानतहू तिनके तन सौं, उपमा-उपमेइ कहा तुम राँचहु॥

भावार्थ: हे कवि द्विजदेव! यह तुम भलीभाँति जानते हो कि उस ‘अनंत शक्ति’ की महा ‘महिमा’ है जिसके रूप के ध्यान में मन का प्रवेश नहीं है अर्थात् उसका कोई रूप मन से स्थिर नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अदृश्य है और यदि कहो कि वचन-रचना से उसको समझावें तो वह ऐसी वस्तु ही है जहाँ वाचा की निवृत्ति होती है अर्थात् जहाँ तक कोई कह सकता है वहीं तक वह नहीं है, उसके भी परे वह रूप है। श्रुति में भी कहा गया है-”यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।“

अतः जिसका ध्यान ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहस्रों वर्ष तक करते हुए भी जिसे चित्त में नहीं ला सकते, वहाँ इतर (और) जनों की क्या कथा है जो प्रपंच में नाच रहे हैं या भवसागर में पड़े हुए गोते खा रहे हैं। कोई भी उनके अंत को नहीं पाते हैं, ऐसा जानकर भी तुम उनके नख-शिख का वर्णन कर उपमा, उपमेयादि की रचना की इच्छा व्यर्थ क्यों करते हो? यदि साधारण कवियों की भाँति उपमा, उपमेयादि के वर्णन करने का विचार है तो तनिक सूक्ष्म दृष्टि से देखो कि कितना अंतराल इनमें और उस शरीर में पड़ता है। आप (कवि) ने पाँचों प्रकार के प्रतिमालंकारों की युक्ति के द्वारा उपमाओं का खंडन करते हुए सरस्वती के मुख से उपदेशानुसार श्रीराधिकाजी के नख-शिख का वर्णन कर अपने अभीष्ट को पूरा कर दिया।