छंद 253 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(भाल-वर्णन)
एकै मौज कीन्हीं हैं त्रिदेबन त्रिदेब दीन्हीं, एकै मौज साहिबी सुरेसै देबतन की।
एकै कोर हेरिकैं कुबेरहिँ कुबेर कीन्हौं, दीन्हीं बहु-भाँति प्रभुताई घने-घन की॥
‘द्विजदेव’ एकै बार पलक उठाइ अति, दीपति बढ़ाइ दीन्हीं सूर-ससि-तन की।
जाइ किन गाई एती समरथताई बाल-भाल के पटा पैं बसे लाल के दृगन की॥
भावार्थ: भारती कहती है कि हे द्विजदेव कवि! जिस भालरूपी राजपट्ट (राज्यासन) पर निरंतर जमने (बैठे रहने) से परमेश्वर श्रीकृष्णचंद्र के नेत्रों की यह सामर्थ्य हुई कि एक ही कृपा-कटाक्ष में त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को उत्पति, स्थिति, संहार की सामर्थ्य दी व इंद्र को ‘देवनायक’ बनाया, कुबेर को ‘धनपति’ किया और एक ही कृपा-कटाक्ष से सूर्य, चंद्र के तन में ऐसी दीप्ति बढ़ाई कि उससे वे अखंड पृथ्वीमंडल को प्रकाशित करते हैं तो उस ‘भाल’ की समता कहाँ से लाओगे।