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छंद 255 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(कज्जल-कलित-कमलाक्ष-वर्णन)

समता कहौ कैसैंऊँ भाँखी परै, कबहूँ कुमुदामल, खंजन तैं।
अलि जाचक ह्वै कैं सकैं सरि कै, उन कंजन के मद-भंजन तैं॥
‘द्विजदेव’ कुरंग सकै समुहाइ, लला-मन-मंजुल-रंजन तैं?।
जब प्यारी सुधारति सूधे सुभाइनि, मोह-मई दृग अंजन तैं॥

भावार्थ: हे द्विजेव! जब स्वभावतः श्रीराधाजी सहज स्वभाव से (अपने) नेत्रों को कज्जल से विभूषित करती हैं तो नेत्रों के उस सुधाभार की समता ‘स्वेत कुमुद’ और ‘खंजन’ (पक्षी विशेष) से कैसे हो सकती है? क्योंकि एक में तो श्यामता लेशमात्र नहीं, दूसरे में श्यामता की मित है। यदि वह श्याम हो भी तो (उसमें) मनोहरता कहाँ? भ्रमर की उपमा भी कैसे युक्त होगी, क्योंकि ये कमल-कुल के याचक हैं और राधिकाजी के नयनों ने अपनी सुंदरता से उन कमलों का मान भंजन किया है व जिस कमल के ये याचक हैं उस कमल के वे गुमान भंजन करनहारे हैं तो कितना अंतराल हुआ। अब रहे कुरंग अर्थात् हरिण, इनके नेत्रों से (उनकी) भी समता नहीं हो सकती? इस कारण कि कुरंग शब्द का दूसरा अर्थ कुत्सित रंगवाला है और ये दूसरे अर्थात् कृष्णचंद्र के मन को रंजित (प्रसन्न व रंगीन) बना देते हैं। (इस कवित्त में रंजित और कुरंग शब्दों में अभिधामूलक व्यंग्य है।)