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छंद 256 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(नासिका-वर्णन)

केहि भाँति तुनीर लहै समता, जन जाकहँ पीछैं रहे धरि कैं।
सुभ सोभ-मई बिछुवाँन के ब्याज, तरंग रहे तिय-पाँ परि कैं॥
‘द्विजदेव’ मनोहर नासिका सौं, तिलहू तिल-फूल सकैं सरि कैं।
जग जा लगि सौरभ-पुंज कर्यौ, कर तैं करतूति किती करि कैं॥

भावार्थ: गिरा कवि को समझाती है कि नासिका के प्रसिद्ध उपमान तीन ही हैं-पहली तूणीर (तरकश) जिसमें बाण धरे जाते हैं, दूसरा-वारि तरंग, तीसरा-तिल पुष्प। विदित ही है कि नासिका शरीर के अग्रभाग में सर्वोन्नत हो विराजित है व तूणीर सदैव पृष्ठभाग में बाँधा जाता है तो अग्रगामी की समता अनुगामी से कैसे हो सकती है एवं वारि तरंग बिछुवा अर्थात् (पादांगुलीय भूषण) के उपमान में भी आता है तो जो चरणसेवी का उपमान है सो सर्वोपरि अवयव नासिका की समानता को कैसे प्राप्त होगा। अब रहा गंधहीन तिल पुष्प, सो उसकी समता ऐसी नासिका से अर्थात् जिसके निमित्त कितना श्रम करके कर्ता ने सब सौरभ की सृष्टि की, कैसे होगी? दूसरा अर्थ यह भी है कि प्राचीन कवि सुगंधित समीर से निश्वास की उपमा देते हैं, जिससे सदैव नासिका पूरित है।