भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 268 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:37, 3 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा
(कुच, रोमावली और उदर का अप्रत्यक्ष रूप से वर्णन)

दीन्हे जानि बराइ बुधि, कछुक आगिले गात।
चढ़ि-पहार, असि-धार-पथ, को भौंरहिँ तरि जात॥

भावार्थ: इसके पश्चात् बुद्धिस्थिता भगवती ने और अंगों के विषय में कथोपकथन करना उचित न जानकर केवल इतना ही कहके छोड़ दिया कि हे कवि? तुम इतना ही समझो कि शैल-शिखर पर चढ़के खंगधारा के पथ से हो महान् सरिता के आवर्त (भँवर) को कौन तैर सकता है। यदि विचार किया जाए तो वक्षःस्थल से नाभिपर्यंत सब अवयवों का वर्णन कवि ने रूपकातिशयोक्ति अलंकार के ब्याज से गुप्तरूप से कर दिया।