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कपड़े बुनना बंद हो गया / सुरजीत मान जलईया सिंह

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बचपन के उन यारों से अब मिलना जुलना बंद हो गया
पीतल वाली थाली में वो गुड़ भी घुलना बंद हो गया

कितने तन्हा रहते हैं हम बैठक वाले कमरे में
जब से घर में परियों वाले किस्से सुनना बंद हो गया

सिलवर का वो घी का डिब्बा अब भी अलमारी में है
बिन गया के उस डिब्बे का घर में खुलना बंद हो गया

गर्म कहाँ रखते हैं तन को अब तो ये बाजारू कपड़े
जब से माँ के नर्म हाथ का कपड़े बुनना बंद हो गया

लहराते उन कमर बलों पर हर दिन सजते थे पनघट
अब तो उन कुओं में भी कलशे डुबना बंद हो गया