भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शोर मचाती रहती हो / सुरजीत मान जलईया सिंह
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:49, 4 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरजीत मान जलईया सिंह |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
याद तुम्हारी अक्सर
आती जाती है
पलकों पर धुन्धक सी
खुद छा जाती है
शोर मचाती रहती हो
मेरे मन में
अंगडाई सी क्यूँ लेती हो
इस तन में
पागल करके ही क्या
अब छोडोगी तुम
महक तुम्हारी मेरे तन
से आती है
याद तुम्हारी अक्सर
आती जाती है
पलकों पर धुन्धक सी
खुद छा जाती है
घर में अब भी मेरा
कमरा खाली है
जहाँ तुम्हारी करता दिल
रखवाली है
कागज की किरचों पर
फैली रहती हो
मेरे गीतों पर धुन तेरी
आती है
याद तुम्हारी अक्सर
आती जाती है
पलकों पर धुन्धक सी
खुद छा जाती है
जिन रस्तों पर आती थीं
तुम छुप छुप कर
एक मिलन की अभिलाषा
थी रुक रुक कर
खेतों की पगडण्डी पर
अब भी तेरे
पद चिन्हों की छाप
नजर आ जाती है
याद तुम्हारी अक्सर
आती जाती है
पलकों पर धुन्धक सी
खुद छा जाती है