यह सारा उजाला / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
रात थी अॅंधेरा था
थोड़ी फिसलन भी थी पिछवाड़े ऑंगन में
पैर फिसला तो मैं गिरा
चोट आयी घुटने में
माँ दीया लेकर आयी
पत्नी लेकर आयी पट्टी और मरहम
भाई दवाई लाया
बेटे ने हवा की पुश्टे के पंखे से
बेटी ने पिलाया ठंड़ा पानी
बहन दौड़ कर आयी
पिता कुछ कर ना पाये,
मगर घबराए कि मैं कैसे गिरा?
दो चार दिन
पड़ोसियों ने भी पूछा चोट के बारे में
दफ्तर के कुछ लोग हँसे भी
दोस्तों ने नसीहतें दी
किसी मसाला भी मिला
किसी की बेवकूफी पर हंँसने का
मगर एक दिन
ऐसी ही किसी अॅंधेरी रात में
आदमी का पैर फिसलता है, और
वह गिर जाता है
ऐसे अंधेरे गढ्ढ़े में, जहांॅ से
मुश्किल होता है बाहर निकलना
मुश्किल होता है वहॉं पहुॅचना
जहां घुटने की चोट पर लगाई जा सके हल्दी
जहॉं पहुॅच सके
हाथों में दीया लिये मॉं,
मरहम लिये पत्नी
दवाई लिए भाई
हवाएं लिए बेटा
पानी लिए बेटी
घबराए हुए पिता
हालचाल पूछते पड़ोसी
या फिसल कर गिरने वाले पर
हँसते हुए लोग
इसीलिए इस पल
मैं ले लेना चाहता हॅेू
यह सारा का सारा उजाला
जो मिट्टी के दीये में रखकर
लायी है माँ
अच्छा लग रहा है
यह मरहम यह दवा
यह हवा यह पानी
यह घबराहट यह कुशलक्षेम
यह नमस्ते यह नसीहतें
यह उपहास यह हंसी
और अच्छे लग रहे हैं
यह अपने जख्मी घुटनों के दाग