भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कियां सहेजां सपना बां री / मंगत बादल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:06, 8 जुलाई 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
कियां सहेजां सपना बां री,
बिखरी लड़ी-लड़ी !
कुण नै देवां दोस ?
कबीरा-
कूवै भांग पड़ी ।

भला बखत हा
थे तो कैग्या
आखर-आखर अणमोल ।
सांच-झूठ
अेक लागै अब
मचरी रांपट-रोळ ।
म्हांरो डांव आवै कोनी पण,
डांई देता थकग्या
बां रो निसानो चूकै कोनी,
खेलै मार-दड़ी ।

चाल-चाल पग थकग्या,
चादर लीरम-लीर हुई ।
ढाई आखर भण्यां बिना,
जिनगाणी भीर हुई ।
रोय-रोय जद बिथा कही,
म्हैं गीतां में-
सुण-सुण दुनियां मजा लेवै
अर हांसै खड़ी-खड़ी ।