भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पेट / मथुरा नाथ सिंह 'रानीपुरी'
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:29, 10 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मथुरा नाथ सिंह 'रानीपुरी' |अनुवाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अजब किसिम के ई लफड़ा छै
जेकरा देखऽ पेटे-पेट
तब्बो कैन्हें कहै छै केकर्हौ
करतूतऽ के तोरे पेट।
चाल चलै छऽ डेगा-डेगी
खाय छौं सबटा तोरे पेट
एक दिन तोरऽ भंडा फुटत्हौं
झूठें सबटा खोलत्हौं पेट।
वोकरा भला कहाँ के देखै
जेकरा कोखें सटलऽ पेट
दुर-दुर, छी-छी करत्हौं लोगें
तोरे कैन्हें ई रंग पेट।
की-की करतै हय रंग भरल्हें
सब के आँखी हय रंग चढ़ल्हें
जे दिन हैजा-पेचिस होतौं
एकोटा नै रहतौं पेट।
हय रंग नै रे पेट बढ़ावऽ
ससरी जैत्हौं एक दिन पेट
डैनी आगू कोख छिपैनै
खैत्हौं तोरा तोरे पेट।
ई पेटें सवाल करै छै
मरै नै कैन्हें लाजें पेट
कहै छै ‘मथुरा’ ई रंग पेटें
भरै छै कैन्हें ई रंग पेट।