भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँस का सरगम टूट / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:25, 11 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=मन गो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यों लगता है दुख के सारे
दिन वे बीत गए
तुमको पाकर जीवन के सुख
पल में जीत गए।

जीवन का सूनापन है क्या
इसको जान लिया
साथी, तुम मेरी साँसे हो
मैंने मान लिया
अब समझो तुम क्या होगा जो
वापस मीत गए।

आज प्राण के तार-तार सुर
सौ-सौ साध रहे
दोगुण-तिरगुण नहीं ताल के
सारे रंग बहे
आज कहाँ से उमड़ पड़ रहे
इतने सुर, लय, ताल
कल तक तो लगता था जैसे
सब संगीत गए।