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रजनीगन्धा की छाया में मन है मगन / अमरेन्द्र

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रजनीगन्धा की छाया में मन है मगन
क्या करूँ, पँखुड़ी को लिए हाथ में।

रूप, यौवन तुम्हारा, ये शृंगार, सब
वैसे स्वीकार, स्वीकार, स्वीकार, सब
पर जहाँ लक्षणा, व्यंजना ही न हो
तो रखा क्या है अभिधा भरी बात में।

प्यार में यह समर्पण, बुरा तो नहीं
पर यही सब कुछ हो, यह हुआ तो नहीं
प्यार ऐसा भी हो कुछ दिखे छाया-सी
फिर दिखाई न दे चाँदनी रात में।

कण्ठ में हो नदी, प्यास लगती रहे
आग शीतल-सी मन में सुलगती रहे
रह के संग-संग अकेले-अकेले लगें
आओ, हम-तुम चलें उम्र भर साथ में।