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क्यों खुद को तड़पाती हो / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'

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प्रीत जुदाई की बातों से,
क्यों खुद को तड़पाती हो।
मैं हर मौसम से गुज़री हूँ,
मुझको तुम क्या बतलाती हो।

मैं तेरे उर की पीड़ा से,
हूँ तनिक नहीं अनजान सखी।
इसको तू अब अपनाकर जी,
ये बात जरा बस मान सखी।
है पीड़ा आज नई तेरी,
तब सहज सभी कह जाती हो

नित हूक ह्रदय में उठती है,
रातें भी तुझ सँग जगती है।
लरजे़ ये लब ख़ामोश तेरे,
आँख़ें चुपके से बहती है।
गुज़रा वक़्त पलटकर तुम फिर,
पीड़ा को पी जाती हो।

ये जीवन बहता पानी -सा,
चुन लेगा खु़द अपनी राहें।
जो गुज़र चुका तू भूल उसे,
नव सपने फैलाते बाँहें।
निज को झूठी उम्मीदों से,
तुम आख़िर क्यो बहलाती हो?