तटस्थता / स्मिता सिन्हा
उस दिन
उस एक दिन
जब एक सभ्यता का विनाश जारी था
घिरा हुआ था मैं भी वहीं कहीँ
उन भग्नावशेषों के मलबों में
बेबस,बदहवास शक्ल
और चेहरे पर बिखरे खून के साथ
चुप होने से पहले
मैंने आवाज़ लगाई थी तुम्हें
चिल्लाया था अपने पूरे दम से
पर तुम निर्लिप्त बने रहे
पूरे आवेग से टटोली थी मैंने
ज़िंदगी को उस घुप्प अँधेरे में भी
बदलना चाहा था परिदृश्य
पर संवेदनाएँ गुम होती चली गयीं
मैं चाहता था निकल भागूं
दूर कहीं अज्ञात में
उस चमकीली रौशनी के पीछे
बाँध डालूं अपने सारे मासूम सपनों को
उस एक सम्भावना की डोर से
बचा पाऊँ अपने बचपन को
बिखरने से पहले
पर नहीं
मैं कतरा कतरा रिसता रहा
अपने जख़्मों में
और मेरी नज़रों के सामने
छूटती गयी ज़िंदगी
पता है तुम्हें
इतनी तटस्थता यूँ ही नहीं आती
कि इतना आसान भी नहीं होता
जिंदा आँखों को कब्र बनते देखना
बावजूद इसके
यकीन मानो
मैं बचा ले जाऊँगा
विश्व इतिहास कि कुछ अंतिम धरोहरें
कि मैंने उठा रखा है
अपने कंधों पर उम्मीदों का ज़खिरा...
(ओमरान दकनिश!! तुम्हारे मौन में भी कितना शोर है।)