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बेसाख़ता सी एक हँसी / स्मिता सिन्हा

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मैं अक्सर लिख आती हूँ
बेसाख़ता सी एक हंसी
हर उस जगह
जहाँ लिखनी होती है मुझे उदासी
लिख देती हूँ
गम्भीरता की जगह
एक अल्हड़ सी बेफिक्री
और आँखों के खारे पानी की जगह
ढेर सारी बारिश की बूँदे

मैं लिख देती हूँ
खूब खूब बातें
उन भयंकर खामोशी वाले दिनों में भी
हरी हरी कोंपलें
उन सख्त बंजर वाले दिनों में भी
नहीं पसंद मुझे
घर की दहलीज़ को लिखना
मैं लिखती हूँ तो बस
आकाश का खुलापन
उसका असीमित विस्तार
बादल पक्षी पेड़ पहाड़
और रंगीन तितलियों का
दूर तक पीछा करते
इंद्रधनुष से रंगीन सपने

हाँ मैं अक्सर लिख कर छुपा आती हूँ
इस शहर की भीड़ में अपना अकेलापन
यकीन मानो
एक इकहरे से जीवन के भी
कई कई अर्थ हो सकते हैं
वो अलग बात है कि
आज तक मैं खुद नहीं समझ पायी
मुक्ति की चाह
और चाह से मुक्ति के बीच का फ़र्क...