भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जूतों की चरमराहट / स्मिता सिन्हा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:25, 23 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्मिता सिन्हा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह ऊँची आवाज़ में
क्रांति की बात करता है
संघर्ष की बात करता है
और फ़िर निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है
वह देखता है
हर रोज़ होती आत्महत्याओं को
रचे जा रहे प्रपंचों को
वह हर रोज़ गुजरता है
अपनी उफ़नती सोच की पीड़ा से
किंतु प्रमाणित नहीं कर पाता
अपने शब्दों को
वह हर रोज़ बढ़ाता है एक क़दम
उस अमानुषी पत्थर की ओर
फ़िर एक क़दम पीछे हो लेता है
वह अपने और ईश्वर के बीच
नफ़रत को बखूबी पहचानता है
और पहचानता है हवाओं में
देह व आत्माओं की मिली जुली गंध
वह देखता है
सभ्यता के चेहरे पर पड़े खरोंचों को
वह देखता है
सदी के नायकों को टूट कर
बिखरते बदलते भग्नावशेषों में

वह अकेला है, विखंडित
इतनी व्यापकता में भी
अभी जबकि
जल रहे हैं जंगल, गेहूँ की बालियाँ
टूट रहे हैं सारसों के पंख
कैनवास में अभी भी
सो रहा है एक अजन्मा बच्चा
और उसकी माँ की चीखें
कुंद होकर लौट रही हैं
बार बार उसी कैनवास में
अभी जबकि हो रहे हैं
हवा पानी भाषा के बंटवारे
और समुन्दर के फेन से
सुषुप्त हैं हमारे सपने
उसे थामना है इस थर्राई धरती को
और चस्पा करने हैं मुस्कान के वो टुकड़े
जिसमें बाकी हो कुछ चमकीला जीवन
अभी जबकि बाकी है उसके जूतों में चरमराहट
उसे लगातार दौड़नी है अपने हिस्से की दौड़...