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भीड़ / स्मिता सिन्हा

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देखो वह एक भीड़ है
जो चली जा रही है
अनंत अबूझ यात्राओं पर
एक ही धारा में लगातार
जिस ओर की हवा चली है
जिस ओर धरती धंसी है
जिस ओर उफन रहे हैं सागर
जिस ओर दरक रहे हैं पहाड़
देखो भीड़ के हाथ में एक पत्थर
जिसे वे उसे फेंक रहे हैं लगातार
उस बेहद खराब वक़्त के विरुद्ध

देखो वह भीड़ गुज़रती जाती है
ध्वस्त होते उन तमाम आदर्शों
और प्रतिमानों के बीच से
और बटोरती जा रही है
बिखरे पड़े विमर्शों की परछाईयाँ
भीड़ सतर्क है और सावधान भी
समझ रही है अपने खिलाफ फैलती
जटिलताओं को खूब बारीकी से
उनके हाथों में ख़ंज़र है और ढाल भी
ताकि वे बचा सकें अपने हिस्से की थोड़ी सी धूप

देखो उस भीड़ को
जिन्होंने निगल लिया है अपनी आत्मा को
या कि नियति पर अंकित अंधकार को
देखो वे भिंची हुई मुठ्ठियाँ
तनी हुई भौंहे
प्रतिशोध में लिप्त कठोर चेहरे
और मौन,खौफ,क्षोभ
और गहराते रक्त के खालिश ताजे धब्बे
यह भीड़ अब नहीं समझना चाहती
ककहरे, प्रेम या कि गीत
उसे सब विरुद्ध लगते हैं अब
धरती,सागर,पहाड़,कल्पना या कि कलम
तुम देखना हमेशा यही भीड़ टाँग दी जाती है सलीब पर
इससे पहले कि वो आ पाये हमारे करीब
थूक पायें हमारे मुँह पर