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सुना है मर रही हैं / सुदेश कुमार मेहर

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सुना है मर रही हैं ये दिसम्बर की हसीं रातें
सुना है मर रहे हैं ये दिसम्बर के हसीं लम्हे
कहीं तो कैद हैं वो याद के टुकड़े कई शामों के,
बदन को चीरती तीखी हवाओं गुनगुने घामों के,
समय की अधबुझी सिगरेट सा रिश्ता जला सा है,
कोई कश आखिरी तो ले, कि भीतर कुछ मरा सा है,
सुना है मर रही हैं ये दिसम्बर की हसीं रातें
सुना है मर रहे हैं ये दिसम्बर के हसीं लम्हे
मगर मैंने अभी देखे हैं पिछले वो कई लम्हे,
सफे में जिनके लिक्खे हैं हमारे टूटते हिस्से,
कोई हिस्सा तेरे उस गाल के तिल की अमानत है,
कोई टुकड़ा तेरी बेलौस आँखों की हरारत है,
ये मुझमें और तुममें भी अभी तक सांस लेते हैं
हमारे हैं, चलो आपस में इनको बाँट लेते हैं
नहीं मरतीं कभी भी ये दिसम्बर की हसीं रातें
नहीं मरते कभी भी ये दिसम्बर के हसीं लम्हे