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मन के उस गीले कोने में / स्वाति मेलकानी

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अपने से आँख बचाकर
मैंने-तुमने
एक बीज बोया था
मन के उस गीले कोने में
जहाँ धूप
ज़रा कम ही जाती थी।
एक पौंधा खामोशी से उगा
और लगातार जिन्दा रहा
मेरी और तुम्हारी
सैकड़ों साँसों के बीच।
कभी-कभी हम दोनों ने
छू कर छोड़ा था
पत्तों में छिपती कलियों को
और दोनों के हाथ
ओस से भीग गये थे।
गुजरे तमाम सालों में
उस फूल ने
न खिल पाने का दर्द सहा
जिसकी पंखुड़ियों में
हमारे प्यार के हजारों रंग महकते
और
अब मुरझा रहा है
खिले बिना ही।
सुनो !
तुम दरख्त बन जाने के बाद
उस मुरझाते फूल की
अनछुई ताज़गी को
याद तो करोगे ना।