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तब तक चोटें करनी होगी / स्वाति मेलकानी
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तब तक
चोटें करनी होगी
कलम, हथौड़े और फूल से।
आर-पार के द्वार
कभी तो खुल पाएँगे
मेरे बाहर।
मेरे भीतर की जाली से
छनकर जाती धूप
कभी वन के फूलों को
जीवन देगी।
पटरी पर तेज दौड़ती
रेलगाड़ी जैसी
छुक-छुक साँसें
रूक जाएँगी वहाँ
जहाँ के लिए चली थी।
तब तक
चोटें करनी होगीं
कलम, हथौड़े और फूल से।