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नियति / अर्चना कुमारी
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तुम्हारा समझना
मेरा समझाना
दोनों अबूझ रहे
उंगलियां पर नाचकर देर तक
उपजे मोह के धागों का वृत
बन चुकी हैं लक्ष्मण रेखा
और एक सुरक्षा कवच जैसा कुछ
आवाजें आती हैं
सुनती हूं
स्वीकारती हूं
ग्रहण नहीं करती
यहीं ख़त्म होती है सीमा मेरी
तुम्हारे कहने
और मेरे न कहने के बीच
जो सुलझी हुई उलझन है
वही नियति है
दो किनारों की।
समय की नदी
तुम और मैं।