भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सर में बाक़ी कहीं कुछ सनक दिखती है / भवेश दिलशाद

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:26, 2 सितम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भवेश दिलशाद |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सर में बाक़ी कहीं कुछ सनक दिखती है
अब भी ख़्वाबों में तेरी झलक दिखती है

जब पसीने में तर मैं तुझे देख लूँ
धूप में चाँदनी की चमक दिखती है

आस्मां जब हँसे दिखता है आधा चाँद
जब ज़मीं हँसती है इक धनक दिखती है

मैं लगातार गर देखता हूँ तुझे
तू मुझे देखती एकटक दिखती है

ओझल आँखों से हो कर भी तू ज़िंदगी
देर तक दिखती है दूर तक दिखती है