भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मीलों-मील बँधी हुई धूप में / तेजी ग्रोवर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 5 अक्टूबर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसका [कवि का] कान उससे बात करता है
                                 — पॉल वालेरी

मीलों-मील बँधी हुई धूप में
                    पूसे अनाज के

कान सुनता है
    एकटक
    कनक और टेसू के रंग
    सेमल के फूल की हवा में

और मँजते हुए सुबह के बासन कहीं

वह कहीं इस दृश्य की भँगुरता में अलसाई
               हँस रही है काँच की हँसी