भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आहटें / तुम्हारे लिए / मधुप मोहता

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 9 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप मोहता |अनुवादक= |संग्रह=तुम्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने सोचा कि लो आप आ ही गए,
ऐसे रुक-रुक के आती रहीं आहटें।
आप आते, न आते सहर आ गई,
रात भर हम बदलते रहे करवटें।
जाम-ओ-मीना में बस तिश्नगी रह गई,
लाल आँखों में बाक़ी रहीं हसरतें
दिल के हिस्से में आईं कुछ इक तल्ख़ियाँ,
और बिस्तर में बाक़ी रही सलवटें।
मुजमिद से बदन लम्स की शिद्दतें,
यूँ मुसलसल निभाते रहे चाहतें
फ़ासलों पर रही वस्ल की राहतें।