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परछाईं / तुम्हारे लिए / मधुप मोहता
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कभी-कभी, महज़ कभी-कभी
जब तेरे नक़्श मेरे ज़हन में
सुलगती आँच के धुएँ की तरह
उठे हैं तो मैंने चाहा है
तू मेरे आसपास, क़रीब कहीं
बैठी होती तो बेहतर होता।
याद आता है, एक बार तू जब
खड़ी हुई थी मेरी दीवार से सटकर
और चाँदनी में पिघलकर तेरी
परछाईं दीवार पे उतर आई थी
ऐसा लगता है, जैसे अब तक
वहीं बिछी हैं तेरी परछाईं
और जब तूने मेरे कान में
हौले से कहा था सुनो,
आज की शाम वहीं मिलना,
जहाँ कल बैठकर बातें की थीं,
मैं फिर आज वहीं बैठा हूँ।