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गठरी / तुम्हारे लिए, बस / मधुप मोहता

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मुझे मालूम है
तुमने बहुत सहेजकर
सबसे आँखें बचाकर
दुछत्ती में छुपाकर
रख दी होंगी एक भूरी अटेची में
एक आसमानी साड़ी, क लाल अँगरखा
एक चेक का कोट, कुछ स्कार्फ़
पानी के रंग की तीन दर्जन चूड़ियाँ
इतर की औनी-पौनी बोतलें
कुछ ख़त, और ख़तों के बंडलों और
कविताओं की पुरानी किताबों के बीच
सूखे हुए पीले गुलाब और रजनीगंधा,
मुझे मालूम है तुम कभी नहीं खोलोगी
यादों की सतहों की गठरी
जिसे हमने एक साथ बाँधा था
तुम्हारी चुन्नी के छोर की गाँठ में बँधा
एक बैंगनी नीलम शायद किसी
अँगूठी में कभी जड़ा नहीं जाएगा
हम शायद कभी एक साथ भुट्टे,
बुढ़िया के बाल या चने नहीं खाएँगे
कभी एक साथ पहाड़ों में छुट्टियाँ नहीं मनाएँगे,
कभी आमने-सामने आ गए तो एक-दूसरे से
नज़रें बचाकर निकल जाएँगे
और शाम को घर लौटकर आईने में
झाँकेंगे और आँख की कोर में छिपे
आँसू को रूमाल से पोंछकर
रोज़मर्रा के कामों में लग जाएँगे
समय के साथ हर सच झूठ और हर झूठ सच हो जाता है
इतिहास की परिभाषा अंतरिम होती है, अंतिम नहीं
समय आने पर दुछत्ती में सहेजकर छुपाई हर गठरी खुलती है
और गर्द में लिपटा हर ख़त पढ़ा जाता है
एक व्यक्तिगत यथार्थ सामाजिक नहीं होता
और सच पूछो तो समाज कोई अर्थ नहीं होता,
तुम्हें छूना, तुम्हारे हाथांे को थामना
तुम्हारी आँखों में झाँकना
और तुम्हारे ज़र्द ओठों से लाली की एक-एक बूँद को चुरा लेने के अतिरिक्त
मेरा और कोई सच नहीं है
और मैं नहीं जानता हूँ कि मेरा सच तुम्हारी झूठ है
जब शब्द सच न कह पाएँ तो व्यर्थ हैं
और प्रेम के सारे उपालंभ सारे पर्व अनर्थ हैं,
हम जो प्रतिदिन एक नए संबंध का आविष्कार कर लेते हैं
जब पीछे मुड़कर देखते हैं
तो एक आत्मग्लानि को छोड़कर कुछ नहीं पाते हैं,
और शायद इसलिए समाज के बनाए संकीर्ण पुलों पर चाहे-अनचाहे
मतलब-बेमतलब बढ़ते चले जाते हैं
मुसकराकर सच्चे, झूठे रिश्ते निभाते हैं
और एक दिन खोखले हो जाते हैं
सुना है आज मदनोत्सव है
चलो किसी नए साथी के साथ
चलकर मदनोत्सव मनाते हैं।