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सुबह हर घर के दरीचों में / साग़र पालमपुरी
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सुबह हर घर के दरीचों में चहकती चिड़ियाँ
दिन के आग़ाज़ का पैग़ाम हैं देती चिड़ियाँ
फ़स्ल पक जाने की उम्मीद पे जीती हैं सदा
सब्ज़ खेतों की मुँडेरों पे फुदकती चिड़ियाँ
अब मकानों में झरोखे नहीं हैं शीशे हैं
जिनसे टकरा के ज़मीं पर हैं तड़पती चिड़ियाँ
किसी वीरान हवेली के सेह्न में अक्सर
उसके गुमगश्ता मकीनों को हैं रोती चिड़ियाँ
जेठ में गाँव के सूखे हुए तालाब के पास
जल की इक बूँद की ख़ातिर हैं भटकती चिड़ियाँ
खेत के खेत ही चुग जाते हैं ज़ालिम कव्वे
और हर फ़स्ल पे रह जाती हैं भूखी चिड़ियाँ
सोचता हूँ मैं ये ‘साग़र’! कि पनाहों के बग़ैर
ख़त्म हो जाएँगी इक दिन ये बेचारी चिड़ियाँ