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बसा है जब से आकर दर्द / साग़र पालमपुरी

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बसा है जब से आकर दर्द—सा अज्ञात आँखों में

तभी से जल रही है आग —सी दिन—रात आँखों में


अजब गम्भीर—सा इक मौन था उन शुष्क अधरों पर

मचा था कामनाओं का मगर उत्पात आँखों में


न दे क़िस्मत किसी को विरह के दिन पर्बतों जैसे

तड़पते ही गुज़र जाती है जब हर रात आँखों में


ढली है जब से उनके प्यार की वो धूप मीठी —सी

उसी दिन से उमड़ आई है इक बरसात आँखों में


न अवसर ही मिला हमकॊ व्यथा अपनी सुनाने का

सिसकती ही रही इक अनकही—सी बात आँखों में


हुई हैं इनमें कितने ही मधुर सपनों की हत्याएँ

है जीवन आज तक भी दर्द का आघात आँखों में


तुम्हारे प्यार का जोगी तो अब बन—बन भटकता है

रमाए धूल यादों की लिए बारात आँखों में


कहीं ऐसा न हो ‘साग़र’! उसे भी रो के खो बैठो

सुरक्षित है जो उजड़े प्यार की सौग़ात आँखों में