भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परसाई से सुना था / जया पाठक श्रीनिवासन

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:41, 13 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(१)
वह लम्बी लम्बी डींगें हांकता था
अक्सर सब
सुनते थे उसकी बात
उसकी बातों में उन सबके मन का
भेड़िया झांकता था
अक्सर जब वो बोलता था
सब भेद बनकर
बैठ जाते थे, सुनने
मैंने देखा -
कई बार बोलते हुए
उसके मुंह से लार टपकती थी
 
(२)
सभी भेड़ों के सीने में एक कील चुभी हुयी थी
भेड़िया बोलता रहा
कीलों को गड़ाता,
चुभन बढ़ाता हुआ
सहसा, ग़दर सा मचा
भेड़ों की भीड़ एक भेड़ पर ही झपट पड़ी
वह भेड़,
जो चैन से सो रही थी -
कील निकाल कर ,
मार डाली गयी
भेड़िया मुस्कुराता रहा देर तक