आज (दुर्दशा) / शिशु पाल सिंह 'शिशु'
लक्ष्य हँस रहा तिरछा-तिरछा, क्योकि पार्थ पर तीर नहीं है
हाँथो पर गाण्डीव नहीं है, कंधे पर तुणीर नहीं है
दुशासन की दुष्ट भुजायें, थकने की क्यों चिंता लायें
आज पाण्डवों की द्रोपदियों पर, अंगुल भर चीर नहीं है
संतापों ने हिमगिर का हिम छीन लिया, सोते भी सोखे,
इसीलिये तो भागीरथ की गंगा में, अब नीर नहीं है
माँ की छाती चूस-चूस कर, भूखों मरे दुधमुँहे बच्चे,
शायद क्षीर सिन्धु शायी के क्षीर सिन्धु में क्षीर नहीं है
कहीं एक मुट्ठी दानों पर, प्राणों की होडें लगती हैं,
कहीं स्वर्ण भस्मों का खाना, कोई टेढ़ी खीर नहीं है
किसी समय मानव काया में, पेट ह्रदय के नीचे ही था,
लेकिन आज उदर के ऊपर, उर के लिये शरीर नहीं है
फुंनगी पर फूलेफूलों की, सेवा में फिरतें हैं भौरें,
मिट्टी में मिल जाने वाली, पंखुरियों के पीर नहीं हैं
कहीं एक की रंगरेली में, सौ- सौ इंद्र धनुष बन्दी हैं,
कहीं सैकड़ों रेखाचित्रों में, रंगीन लकीर नहीं है
मन के ठाकुर अपनी- अपनी, गढ़ी बनाये अकड़ रहे हैं,
सबकी रक्षा करने वाली, सामुहिक प्राचीर नहीं है
हमकों दो धारों में करने वाले, कुटिल दुधारें तो हैं,
पूजा और नमाज मिलाने वाला, संत कबीर नहीं है
भले महात्मा कोई आगे, सब धर्मों के ह्रदय मिला दे,
पर सीने पर गोली खाने वाला, आज फकीर नहीं है
आज चित्रशाला में अलियों, कलियों के चित्र टंगे हैं,
दबने पर चुभ जाने वाले, कांटों की तस्वीर नहीं है
किसी समय धीमे चलने का कारण, बेड़ी का बंधन था,
किन्तु आज गति ही जड़ है, जब पैरों में जंजीर नहीं है