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ज़ब्त किस इम्तहान तक पहुँचा / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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ज़ब्त किस इम्तहान तक पहुँचा

मेरा ग़म भी बयान तक पहुँचा


लौट आई परों में फिर जुम्बिश

हौसला जब ज़बान तक पहुँचा


अपनी आँखों में घर के ख़्वाब लिए

इक मुसाफ़िर मकान तक पहुँचा


तीर था तू जो मेरे तरकश का

कैसे उसकी कमान तक पहुँचा


उसकी ख़ुशबू हवाओं में फैली

जब सुख़न क़द्रदान तक पहुँचा


ये भी तो शे‘र का करिश्मा है

‘द्विज’ भी सारे जहान तक पहुँचा.


दिलों की उलझनों से फ़ैसलों तक

सफ़र कितना कड़ा है मंज़िलों तक


यही पहुंचाएगा भी मंज़िलों तक

सफ़र पहुँचा हमारा हौसलों तक


ये अम्नो—चैन की डफली ही उनकी

हमें लाती रही कोलाहलों तक


दरख़्तों ने ही पी ली धूप सारी

नहीं आई ज़मीं पर कोंपलों तक


हम उनकी फ़िक़्र में शामिल नहीं हैं

वो हैं महदूद ज़ाती मसअलों तक


ज़माने के चलन में शाइरी भी

सिमट कर रह गई अब चुटकलों तक


यहाँ जब और भी ख़तरे बहुत थे

‘द्विज’! आता कौन फिर इन साहिलों तक