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आज एक बिरवा रोपा है / प्रीति समकित सुराना

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आज एक बिरवा रोपा है मैंने मन के आँगन में।
सोचा है फिर रंग भरूँगी सूने से इस जीवन में।

दूर दूर तक देखा जाकर
हरियाली का नाम नहीं है,
खिली खिली सी रंगत वाली
कोई सुनहरी शाम नहीं है,
सोचा है फिर से पहनूँगी सातो रंग मैं कंगन में।
आज एक बिरवा रोपा है मैंने मन के आँगन में।
सोचा है फिर रंग भरूँगी सूने से इस जीवन में।

पंछी का कलरव होता था
शाम ढले पनघट के तट पर
छमछम बरखा की बूँदें
बरसा करती थी छत पर
सोचा है फिर से भीगूंगी अब की बार मैं सावन में।
आज एक बिरवा रोपा है मैंने मन के आँगन में।
सोचा है फिर रंग भरूँगी सूने से इस जीवन में।

बड़े बड़े से महल खड़े है
जहाँ आम के पेड़ खड़े थे
याद कहाँ रहता था बातों में
कौन थे छोटे कौन बड़े थे
सोचा है फिर खेलूंगी गुड़िया मैं सखियों के संग में।
आज एक बिरवा रोपा है मैंने मन के आँगन में।
सोचा है फिर रंग भरूँगी सूने से इस जीवन में।

मंदिर की घंटी को सुन कर
सब भागे भागे आते थे
अंजुरी में पंचामृत पीकर
चन्दन का तिलक लगाते थे
सोचा है फिर से केसर का रंग भरूँगी चन्दन में।
आज एक बिरवा रोपा है मैंने मन के आँगन में।
सोचा है फिर रंग भरूँगी सूने से इस जीवन में।