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हँसती हूँ / प्रीति समकित सुराना

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हाँ!!
हँसती ही रहती हूँ
अकसर
कभी आँखों की नमी का
बहाना बनाती हूँ अपनी हँसी को,
कभी घमंडी सी बनकर
उड़ाती हूँ दूसरों की हँसी,
अपनी ही कुछ कमियों को छुपाने के लिए
कभी इसी हँसी को अपनी ताकत बनाकर
जताती हूँ सबको...
कभी इसी हँसी में
छुपा लेती हूँ अपनी सारी कमजोरियाँ,
कभी अपने डर को छुपाने के लिए
हँसी को पागलपन रूपी ढाल भी बनाती हूँ...
पर सच कहूँ
बहुत मुश्किल है
भीड़ में तनहा जीना,
अपनों में अपनों को पहचानना,
अपने रोने के लिए
अपनी पसंद का कोई सूना कोना ढूँढना...
कभी रोते हुए पकड़े जाओ
तो एक जोकर की तरह
सब भूलकर खिलखिलाना...
पर सच कभी कभी
मैं असलियत में भी हँसती हूँ...
जब अपनों की परवाह और प्यार मिलता है,
तब अपने आँसू
अपने तकिये के नीचे छुपाकर
सिर्फ हँसती हूँ
अपनों की ख़ुशी के लिए,
हर रात सीले-सीले से सपने
अपने सिरहाने रखकर...