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खोई है हर राह यहाँ / जय चक्रवर्ती

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खोई है हर राह यहाँ
मत गाँव हमारे आना जी
आना तो पहले वाली
बातों को मत दोहराना जी.

मेल-मुहब्बत,नाते-रिश्ते
फँसे सियासी–जबड़ों में
बाबा–नाती खड़े सामने
बंटकर अगड़ों-पिछड़ों में
शीश उठाये खड़ी हुई हैं
आँगन-आँगन दीवारें –
भूल गई है खुद गौरैया
अपना ठौर-ठिकाना जी .

सूनी-सूनी हैं चौपालें,
बची न आँच अलावों मे
कुटिल-स्वार्थ के चक्र बने हैं
यहाँ सभी के पाँवों मे
मुखिया जी, सरपंच,
दरोगा मिल कर चाँदी काट रहे –
मगर गाँव को नहीं मयस्सर
एक जून का खाना जी.

नई सभ्यता लूट ले गई
जीवन की सारी मस्ती
फागुन हो या सावन
हर पल सन्नाटा पीती बस्ती
चैता,कजरी,विरहा, रसिया
सब के सब खामोश हुए –
रामदीन की दुलहिन गाती

ईलू-ईलू’ गाना जी.


डेढ़ लाख का बैंक-लोन
‘होरी’ के सिर पर बोल रहा
‘गोबर‘ दो पैसे की खातिर
दर-दर खुद को तोल रहा
नहीं कबड्डी-कुस्ती,
अब सिरमौर सिनेमा–क्रिकेट हुए-
पंचायत का टीवी कहता
‘आया नया ज़माना जी