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आज सुबह ही / कुमार रवींद्र

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आज सुबह ही तो
वसंत को
देखा हमने नदी किनारे
 
हाँ, सजनी
वह खुली धूप में खेल रहा था
हमें याद है
बरसों पहले
तुमने उसको चोर कहा था
 
यह सच
उसने ही चुराये थे
सारे ही सुख-चैन हमारे
 
आँगन में वह
घुस आया था चोरी-चोरी
पैठ गया था
हम दोनों के सीने में
करके बरजोरी
 
कनखी-कनखी
तुमने पहले
नेह-मंत्र थे तभी उचारे
 
रेती पर उसने
गुलाब की सेज बिछाई
देख हमारी बूढ़ी साँसें
हँसा ठठाकर वह हरजाई
 
हम क्या करते
देख चुके थे
ताल-नदी को होते खारे