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इस घटा के छोर पर / कुमार रवींद्र
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इस घटा के छोर पर
जो धूप है
लग रही कितनी सुनहली
धुली गीली पत्तियों से
वह फिसलकर आई नीचे
देखते हैं हम उसे भीतर दहकते
आँख-मींचे
संग उसके
खेलती हमको मिली
भीगने की याद पहली
इन्द्रधनुषी कनखियों के
अक्स भी हैं कहीं अंदर
ज्वार में आया हुआ
इच्छाओं का है एक सागर
वहीँ देखा नया जादू
धूप भी है
चाँदनी भी है रुपहली
धूप के सँग
भीगना बरखाओं में है हमें भाता
जन्म चाहे हुए कितने ही
हमारा औ' तुम्हारा वही नाता
आईं विपदाएँ, सखी
पर साँस
तुम सँग रही बहली