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मधुमास की पगडंडियाँ / कुमार रवींद्र

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दिन हुए
मधुमास की पगडंडियाँ हैं
 
धूप आई है सुनहरी
और तुम भी
खिला पहला
रात चंपा का कुसुम भी
 
हर तरफ
मीठी छुवन के ही ठियाँ हैं
 
रहा सपनों की गली में
रात सूरज
रच रहा वह आइने में
नये अचरज
 
वहीं तो, सजनी
तुम्हारी कनखियाँ हैं
 
कल हवा में बर्फ थी
वह गल चुकी है
रौशनी के घाट पर
साँसें रुकी हैं
 
देह में फिरती
सुनहरी तितलियाँ हैं
 
तुम बहीं
हम भी बहें हैं सँग तुम्हारे
सुनो, रितु के
पर्व सारे हैं कुँवारे
 
हम लगाते
नेह-जल में डुबकियाँ हैं