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गा रही हैं नम हवाएँ / कुमार रवींद्र
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गा रही हैं नम हवाएँ
और ये ऊदी घटाएँ
राग बरखा का
दिन सलोने
और ये भीगी हुई पगडंडियाँ हैं
दूर तक दिखतीं नहाई मेंह-जल में
घाटियाँ हैं
पेड़ भीगे बाँचते हैं
नेह की मीठी कथाएँ -
राग बरखा का
धूप निकली बस ज़रा सी
पत्तियों में छिप रही है
आँख में इच्छाएँ काँपीं
हवा कुछ ऐसी बही है
बिजुरियों के गान से हैं
रात भर गूँजीं गुफाएँ
राग बरखा का
सृष्टि का पहला अछूता
जन्मदिन यह
और हम-तुम
उधर पर्वत दिख रहा था
वह अचानक हो गया गुम
टेरती है बादलों को
देह की सारी शिराएँ
राग बरखा का