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चाँद शायद हो अभी भी / कुमार रवींद्र

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चाँद शायद हो अभी भी
              सखी, छत पर
 
आँख-मूँदे हम यहाँ
इस घुप अँधेरे में खड़े हैं
दूर तक दिखते यहाँ
टूटे सपन के आँकड़े हैं
 
हमें रह-रह
टेरता है
आँगने में देवता का घर
 
साथ हमने चाँदनी का बिरछ
जो था कल लगाया
रहा घर पर हैं हमारे
उसी का जादुई साया
 
वहीं से तो
अभी, सजनी
सगुनपाखी गया उड़कर
 
याद हमको झरी जब थी
धूप कनखी से तुम्हारी
उगीं उस दिन ही
हमारी देह पर कोंपल कुँआरी
 
मिलेंगे
छत पर हमें
हँसते पुराने ढाई आखर