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धूप भी मीठी बड़ी थी / कुमार रवींद्र
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एक युग था
जब युवा था, सखी, सूरज
धूप भी मीठी बड़ी थी
हम सुबह के द्वीप पर तब
मंत्र ऋतु के बाँचते थे
रस-भिगोई देह में
वंशीधुनों को टाँकते थे
रास होतीं हवा
तब थी रोज़ जपती
प्यार की बारहखड़ी थी
उन दिनों थी रोज़ पूनो
चाँद लगता बावरा था
आयने में दीखता आकाश भी
बिलकुल खरा था
एक दिन
हमने अदेही देवता की आँख में
कविता जड़ी थी
हाँ, सुनहरी रेत पर
मिलकर ग़ज़ल हमने लिखी थी
उसी क्षण उमगी लहर में
इंद्रधनु आभा दिखी थी
याद तुमको
तभी काले मेघ उमड़े
लगी बरखा की झड़ी थी