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कहो सखी / कुमार रवींद्र
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कहो सखी,
इन आधी सदी पहले की
छुवनों का क्या करें
नेह-परस वह पहला
सुधियों को टेर रहा
झुर्री हुई देह में
फागुन को हेर रहा
एक अनंग देवा है
भीतर जो
उसको किस घाट धरें
यह यात्रा हमने की संग-संग -
सुखद रही
व्याप हैं शिराओं में
ऋतुगाथा अनकही
यह जो है बिरछ झरा
हम भी क्या
अब उसके साथ झरें
तुमने जो कनखी से
लिक्खी थी नेह-कथा देह में
भीग रही अब आकुल
बर्फीले मेंह में
आग-हुए
इस अंधे वक्त में
क्या हम भी जरें-बरें
सोच रहे कैसे हम
साँसों में व्यापे जो कष्ट-दुख
उन्हें हरें