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बाँध कर दामन से अपने झुग्गियाँ लाई ग़ज़ल / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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बाँध कर दामन से अपने झुग्गियाँ लाई ग़ज़ल

इसलिए शायद न अबके आप को भाई ग़ज़ल


आपके भाषण तो सुन्दर उपवनों के स्वप्न हैं

ज़िन्दगी फिर भी हमारी क्यों है मुर्झाई ग़ज़ल


माँगते हैं जो ग़ज़ल सीधी लकीरों की तरह

काश वो भी पूछते, है किसने उलझाई ग़ज़ल


इक ग़ज़ब की चीख़ महव—ए—गुफ़्तगू हमसे रही

हमने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल


आप मानें या न मानें यह अलग इक बात है

हर तरफ़ यूँ तो है वातावरण पे छाई ग़ज़ल